अर्जुन विषाद योग भगवद गीता का प्रथम अध्याय है। इसमें महाभारत युद्ध के आरंभ से पहले का दृश्य वर्णित है, जब अर्जुन युद्धभूमि में अपने ही बंधु-बान्धवों, मित्रों और गुरुजनों को देखकर मोह और शोक से व्याकुल हो जाते हैं।

👉 यह अध्याय हमें बताता है कि मोह, आसक्ति और दुविधा मनुष्य की निर्णय क्षमता को कैसे प्रभावित करती है। इसी द्वंद्व के बीच आगे भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को जीवन का शाश्वत संदेश देंगे।

भगवद गीता अध्याय 1 श्लोक एवं हिंदी अर्थ

श्लोक 1.1

धृतराष्ट्र बोले: हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र पर युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?

👉 अर्थ: धृतराष्ट्र ने संजय से युद्धभूमि में घटित घटनाओं का वर्णन करने के लिए प्रश्न किया।


श्लोक 1.2

संजय बोले: हे राजन! पाण्डवों की सेना की व्यूह-रचना देखकर राजा दुर्योधन अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहने लगे।


श्लोक 1.3

दुर्योधन बोले: आचार्य! पाण्डवों की विशाल सेना को देखिए, जिसे आपके शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न ने कुशलता से व्यवस्थित किया है।


श्लोक 1.4–1.6

यह सेना भीम और अर्जुन जैसे बलवान योद्धाओं के साथ युयुधान, विराट, द्रुपद, धृष्टकेतु, चेकितान, काशिराज, पुरुजित, कुन्तीभोज, शैव्य, युधामन्यु, उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु तथा द्रौपदीपुत्र जैसे वीरों से सुसज्जित है।


श्लोक 1.7

दुर्योधन बोले: अब हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! हमारे पक्ष के भी उन प्रमुख योद्धाओं को सुनिए, जो युद्ध में हमारी रक्षा के लिए समर्थ हैं।


श्लोक 1.8–1.9

हमारी ओर भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और भूरिश्रवा जैसे महायोद्धा हैं। इनके अतिरिक्त अनेक वीर योद्धा अपने जीवन का बलिदान करने के लिए तत्पर हैं।


श्लोक 1.10–1.11

हमारी सेना असीम है और उसका नेतृत्व भीष्म पितामह कर रहे हैं। अतः मैं सभी कौरव योद्धाओं से आग्रह करता हूँ कि भीष्म की रक्षा में अडिग रहें।


श्लोक 1.12–1.13

इसके बाद पितामह भीष्म ने सिंहनाद जैसी गूँज के साथ शंख बजाया। तत्पश्चात् नगाड़े, बिगुल, मृदंग और तुरही एक साथ बजने लगे, जिनकी ध्वनि से चारों ओर गगनभेदी नाद हुआ।


श्लोक 1.14–1.19

तत्पश्चात् पाण्डव पक्ष से भी भगवान श्रीकृष्ण (हृषीकेश) और अर्जुन (पार्थ) ने अपने दिव्य शंख बजाए। भीम ने पौण्ड्र शंख, युधिष्ठिर ने अनन्तविजय, नकुल ने सुघोष, सहदेव ने मणिपुष्पक, काशिराज, शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, सात्यकि, द्रुपद, द्रौपदीपुत्र एवं अभिमन्यु ने भी अपने शंख बजाए।
उनकी गर्जना से आकाश और पृथ्वी गुंजायमान हो गए और कौरवों के हृदय भय से काँप उठे।


श्लोक 1.20–1.23

हनुमान ध्वज से सुशोभित रथ पर बैठकर अर्जुन ने अपना गाण्डीव उठाया और श्रीकृष्ण से कहा – “हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच खड़ा कीजिए ताकि मैं उन योद्धाओं को देख सकूँ जो धृतराष्ट्रपुत्रों की प्रसन्नता के लिए युद्ध हेतु खड़े हैं।”


श्लोक 1.24–1.25

संजय बोले – अर्जुन के वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने रथ को भीष्म, द्रोण और अन्य प्रमुख योद्धाओं के सामने खड़ा कर दिया और कहा – “हे पार्थ! कुरुओं की इस सभा को देखो।”


श्लोक 1.26–1.27

अर्जुन ने दोनों सेनाओं में अपने बंधु-बान्धवों, मित्रों, गुरुजनों और संबंधियों को खड़ा देखा। यह देखकर उसका हृदय करुणा और शोक से भर गया।


श्लोक 1.28–1.31

अर्जुन बोले – “हे कृष्ण! अपने स्वजनों को युद्ध हेतु तैयार देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है, गाण्डीव हाथ से छूट रहा है। मैं यहाँ खड़ा नहीं रह सकता, मुझे केवल अमंगल दिखाई दे रहा है।”


श्लोक 1.32–1.35

“मुझे राज्य, सुख और विजय की इच्छा नहीं है। क्योंकि जिनके लिए यह सब चाहिए – वे आचार्य, पितामह, गुरु, भाई, पुत्र और संबंधी – सब युद्धभूमि में उपस्थित हैं। हे मधुसूदन! भले ही वे हमें मारें, मैं इन्हें नहीं मार सकता।”


श्लोक 1.36–1.39

“धृतराष्ट्रपुत्र अत्याचारी हैं, परंतु अपने ही स्वजनों का वध करना पाप होगा। वे लोभ से अंधे होकर धर्म-अधर्म में भेद नहीं कर पाते, किंतु हम तो भलीभाँति समझते हैं, फिर भी यदि हम पाप करें तो दोष हमारा होगा।”


श्लोक 1.40–1.44

“कुल नष्ट होने पर धर्म नष्ट होता है, स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाती हैं, अवांछित संतान उत्पन्न होती है और कुल तथा समाज की परंपराएँ नष्ट हो जाती हैं। ऐसे लोग नरक में गिरते हैं, यह मैंने अपने आचार्यों से सुना है।”


श्लोक 1.45–1.46

“हाय! हम तो राजसुख की चाह में पाप का कर्म करने को तैयार हैं। यदि निहत्थे और प्रतिरोध न करने पर भी मुझे कौरव मार दें तो वही मेरे लिए कल्याणकारी होगा।”


श्लोक 1.47

संजय बोले: यह कहकर अर्जुन ने अपना धनुष-बाण नीचे रख दिया और शोक से व्याकुल होकर रथ में बैठ गया।


अध्याय 1 का सारांश (Summary of Chapter 1 – Arjuna Vishada Yoga)

अर्जुन विषाद योग हमें सिखाता है कि जब मनुष्य मोह और आसक्ति से बंधा होता है तो वह सही और गलत का निर्णय नहीं कर पाता। यह अध्याय जीवन की उन परिस्थितियों का प्रतीक है जब हमें अपने कर्तव्य और भावनाओं के बीच संतुलन साधना पड़ता है।