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मोक्ष संन्यास योग गीता का 18वाँ और अंतिम अध्याय है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने संपूर्ण गीता के उपदेशों का सार प्रस्तुत किया है।
इस अध्याय में त्याग (संन्यास), कर्तव्य, ज्ञान, कर्म, भक्ति और मोक्ष का विस्तार से वर्णन है।
अध्याय 18 हमें बताता है कि—
- कर्म को छोड़ना नहीं, बल्कि निष्काम भाव से करना ही सच्चा संन्यास है।
- भक्ति ही मोक्ष का श्रेष्ठ मार्ग है।
- जो श्रद्धा और पूर्ण समर्पण से भगवान की शरण ग्रहण करता है, वही परम शांति और मुक्ति प्राप्त करता है।
भगवद गीता अध्याय 18 श्लोक एवं हिंदी अर्थ
श्लोक 18.1–18.6
- अर्जुन ने पूछा – संन्यास और त्याग में क्या अंतर है?
- श्रीकृष्ण ने कहा –
- संन्यास का अर्थ है – फल की आसक्ति त्यागना।
- त्याग का अर्थ है – कर्म के फल का परित्याग करना।
- यज्ञ, दान और तप को त्यागना नहीं चाहिए, क्योंकि ये शुद्धिकरण के साधन हैं।
श्लोक 18.7–18.12
- कर्म का त्याग तीन प्रकार का है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
- कर्तव्य कर्म का त्याग तामसिक है।
- केवल कष्ट समझकर त्याग करना राजसिक है।
- बिना फल की आसक्ति के शास्त्रसम्मत कर्म करना सात्त्विक त्याग है।
श्लोक 18.13–18.18
कर्म के पाँच कारण बताए गए –
- अधिष्ठान (शरीर)
- कर्ता
- विभिन्न इंद्रियाँ
- अनेक प्रकार की चेष्टाएँ
- दैव (ईश्वर की इच्छा)
श्लोक 18.19–18.40
- ज्ञान, कर्म और कर्ता भी तीन प्रकार के होते हैं – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
- बुद्धि और धृति (धैर्य) भी गुणों के आधार पर तीन प्रकार की होती है।
- सुख भी तीन प्रकार का है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।
श्लोक 18.41–18.48
- वर्ण धर्म (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) का वर्णन।
- प्रत्येक वर्ण का कार्य उनके स्वभाव और गुणों पर आधारित है।
- अपने धर्म में स्थित होकर किया गया कर्म ही श्रेष्ठ है।
श्लोक 18.49–18.66
- भगवान ने बताया – निष्काम भाव से कर्म करने वाला, मन और बुद्धि से संयमित योगी ही मोक्ष प्राप्त करता है।
- सच्चा ज्ञान और भक्ति ही मुक्ति का मार्ग है।
- प्रसिद्ध श्लोक (18.66):
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥”
👉 अर्थात – सब धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूँगा, चिंता मत करो।
श्लोक 18.67–18.78
- यह ज्ञान केवल भक्त और योग्य शिष्य को ही बताया जाना चाहिए।
- अंत में संजय ने धृतराष्ट्र से कहा – जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धर अर्जुन हैं, वहाँ विजय, समृद्धि, शक्ति और धर्म निश्चित रूप से होते हैं।
अध्याय 18 का सारांश
मोक्ष संन्यास योग गीता का समापन अध्याय है जो यह सिखाता है:
- संन्यास का अर्थ है फल की आसक्ति छोड़ना, न कि कर्म का त्याग करना।
- यज्ञ, दान और तप जैसे सत्कर्म आवश्यक हैं।
- सात्त्विक भाव से किया गया कर्म, ज्ञान और भक्ति ही मोक्ष का साधन है।
- भगवान की शरणागति ही जीवन का अंतिम और सर्वोच्च लक्ष्य है।
👉 यह अध्याय सम्पूर्ण गीता का निष्कर्ष और सार है।