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गीता का छठा अध्याय ध्यान योग कहलाता है।
इसमें श्रीकृष्ण बताते हैं कि –
- सच्चा योगी कौन है,
- ध्यान की विधि क्या है,
- और योगी का जीवन कैसा होना चाहिए।
इस अध्याय में योग के विभिन्न रूपों में ध्यान योग की महिमा और श्रेष्ठता बताई गई है।
भगवद गीता अध्याय 6 श्लोक एवं हिंदी अर्थ
श्लोक 6.1–6.4
श्रीकृष्ण बोले –
- जो व्यक्ति बिना फल की इच्छा के अपना कर्तव्य करता है, वही सच्चा योगी है, न कि केवल कर्म त्यागने वाला।
- जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है और समता में स्थित है, वही सच्चा संन्यासी और योगी है।
श्लोक 6.5–6.9
- मनुष्य स्वयं अपना मित्र है और स्वयं शत्रु भी।
- संयमित मन वाले के लिए मन मित्र है, और असंयमित मन वाले के लिए वही शत्रु है।
- योगी सुख-दुःख, मित्र-शत्रु, मान-अपमान और सभी में समभाव रखता है।
श्लोक 6.10–6.17
- योगी को एकांत में बैठकर, स्थिर और शुद्ध मन से, ईश्वर का ध्यान करना चाहिए।
- उसके लिए आसन न बहुत ऊँचा होना चाहिए न बहुत नीचा।
- भोजन, आहार, विहार और कर्म सब में संतुलन रखने वाला ही योग में सफल होता है।
श्लोक 6.18–6.23
- जब साधक मन और इन्द्रियों को नियंत्रित कर आत्मा में स्थित हो जाता है, तब वह योग की सिद्धि को प्राप्त करता है।
- उस समय उसे सांसारिक दुख नहीं विचलित करते और वह परम सुख का अनुभव करता है।
श्लोक 6.24–6.32
- योगी को धीरे-धीरे मन को नियंत्रित कर आत्मा में ही स्थिर करना चाहिए।
- जब योगी सब प्राणियों में आत्मा को और आत्मा में सब प्राणियों को देखता है, तब वह परम एकता को अनुभव करता है।
श्लोक 6.33–6.36
अर्जुन ने पूछा – “हे कृष्ण! ध्यान योग अत्यंत कठिन है क्योंकि मन चंचल है। इसे रोकना हवा रोकने के समान कठिन है।”
श्रीकृष्ण बोले –
- निस्संदेह मन चंचल है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है।
- जिसने मन को जीत लिया है, वही योगी है।
श्लोक 6.37–6.45
अर्जुन ने प्रश्न किया – “यदि कोई योगी साधना में असफल हो जाए तो उसका क्या होता है?”
श्रीकृष्ण ने कहा –
- ऐसा योगी नष्ट नहीं होता। वह अगले जन्म में पुनः योगाभ्यास करता है और अपने पिछले साधना संस्कारों के कारण शीघ्र उन्नति प्राप्त करता है।
श्लोक 6.46–6.47
“सभी तपस्वियों, ज्ञानी और कर्मियों में श्रेष्ठ योगी वही है जो अपने मन को मुझमें लगाता है।
जो भक्तिपूर्वक मेरा स्मरण करता है, वही सबसे उत्तम योगी है।”
अध्याय 6 का सारांश
ध्यान योग हमें सिखाता है कि –
- योग केवल कर्म त्याग या तपस्या नहीं, बल्कि समभाव और आत्मसंयम है।
- ध्यान की साधना से मन स्थिर होता है और आत्मा ईश्वर में लीन हो जाती है।
- योगियों में श्रेष्ठ वही है जो भक्तिभाव से भगवान का ध्यान करता है।
👉 यह अध्याय स्पष्ट करता है कि भक्ति सहित ध्यान योग ही परम योग है।