सांख्य योग भगवद गीता का दूसरा अध्याय है। इसे गीता का हृदय भी कहा जाता है क्योंकि इसमें आत्मा का स्वरूप, नश्वर और अमर तत्वों का भेद, कर्तव्य पालन का महत्व और निष्काम कर्मयोग की शिक्षा दी गई है।
पहले अध्याय में अर्जुन शोक और मोह से ग्रसित होकर युद्ध से पीछे हटना चाहते हैं। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि आत्मा अजर-अमर है और मनुष्य को अपने कर्तव्य (धर्म) का पालन करते हुए फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।
भगवद गीता अध्याय 2 श्लोक एवं हिंदी अर्थ
श्लोक 2.1
संजय बोले: करुणा और विषाद से व्याकुल, आँसुओं से भीगे नेत्रों वाले अर्जुन से भगवान माधव ने इस प्रकार कहा।
श्लोक 2.2–2.3
श्रीकृष्ण बोले: हे अर्जुन! यह दुर्बलता और मोह तुम्हें शोभा नहीं देता। हे पराक्रमी! यह हृदय की क्षुद्रता है, इसे त्यागकर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।
श्लोक 2.4–2.5
अर्जुन बोले – “हे मधुसूदन! मैं भीष्म और द्रोण जैसे पूज्य गुरुओं पर बाण कैसे चलाऊँ? भिक्षा का जीवन जीना भी उनसे युद्ध करने से श्रेष्ठ है।”
श्लोक 2.6–2.9
अर्जुन ने कहा – “मुझे यह समझ में नहीं आता कि राज्य और सुख पाकर भी मैं कैसे दुःख दूर करूँगा, जब अपने ही बंधुओं का वध करना पड़ेगा। मैं आपका शिष्य हूँ, कृपया मुझे मार्गदर्शन दें।” यह कहकर अर्जुन मौन हो गए।
श्लोक 2.10–2.12
संजय बोले – तब भगवान श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर कहा – “हे पार्थ! तुम व्यर्थ ही शोक कर रहे हो। आत्मा कभी न जन्म लेती है और न मरती है। न मैं कभी न था, न तुम, और न ही ये राजा कभी न रहेंगे।”
श्लोक 2.13–2.16
“जैसे शरीर में बाल्यावस्था, युवावस्था और वार्धक्य आता है, वैसे ही मृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर धारण करती है। जो विवेकी है, वह इसमें मोह नहीं करता। जो असत्य है, वह स्थायी नहीं, और जो सत्य है वह कभी नाशवान नहीं।”
श्लोक 2.17–2.20
“आत्मा अविनाशी है। इसका न कोई जन्म है, न मृत्यु। यह अजर, अमर, अव्यय, शाश्वत और सर्वव्यापी है। कोई इसे शस्त्र से काट नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, और वायु सुखा नहीं सकती।”
श्लोक 2.21–2.25
“जो आत्मा को अविनाशी जानता है, उसके लिए शोक का कोई कारण नहीं। आत्मा अदृश्य, अचिन्त्य और अविकार है। इसलिए हे अर्जुन! तुम शोक करने योग्य नहीं हो।”
श्लोक 2.26–2.30
“यदि तुम आत्मा को जन्म और मृत्यु वाला मानो, तब भी शोक करने का कारण नहीं है। जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के बाद जन्म निश्चित है। अतः जिस बात को बदला नहीं जा सकता, उस पर शोक करना व्यर्थ है।”
श्लोक 2.31–2.38
“हे क्षत्रिय! तुम्हारे लिए धर्मयुद्ध से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ कर्तव्य नहीं है। यदि तुम युद्ध नहीं करोगे तो अपने धर्म और कीर्ति को खो दोगे। सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान मानकर कर्तव्य हेतु युद्ध करो, यही तुम्हारा धर्म है।”
श्लोक 2.39–2.47
“अब मैं तुम्हें बुद्धियोग समझाता हूँ। केवल कर्म करने का अधिकार तुम्हारा है, फल पर नहीं। कर्म के फल की चिंता छोड़कर निष्काम भाव से कर्म करना ही योग है। कर्म में आसक्ति छोड़ो और योग में स्थिर रहो।”
श्लोक 2.48–2.53
“सफलता और असफलता में समान रहना ही योग है। जो मनुष्य इन्द्रियों से आकर्षित हुए बिना बुद्धि से स्थिर रहता है, वही योगी है। जब तुम्हारी बुद्धि मोह से मुक्त होकर स्थिर होगी, तब तुम आत्मज्ञान प्राप्त करोगे।”
श्लोक 2.54–2.72 (स्थितप्रज्ञ योग)
अर्जुन ने पूछा – “स्थितप्रज्ञ योगी का स्वरूप कैसा है?”
श्रीकृष्ण ने कहा – “जो मनुष्य इच्छाओं को त्यागकर आत्मा में संतुष्ट रहता है, जो सुख-दुःख में समभाव रखता है, राग-द्वेष से मुक्त है, इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता है, वही स्थितप्रज्ञ है।
जिसका मन शांति में स्थिर है, वही परम सुख को प्राप्त करता है। यह ब्रह्मस्थिति है – इसमें स्थित होकर मनुष्य मृत्यु के समय भी मोक्ष को प्राप्त करता है।”
अध्याय 2 का सारांश
सांख्य योग में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मा की अमरता, कर्तव्य पालन का महत्व और निष्काम कर्मयोग की शिक्षा दी। यही गीता का मूल संदेश है – “कर्म कर, फल की चिंता मत कर”।