श्रीभगवानुवाच |
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव |
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ् क्षति || 22|
śhrī-bhagavān uvācha
prakāśhaṁ cha pravṛittiṁ cha moham eva cha pāṇḍava
na dveṣhṭi sampravṛittāni na nivṛittāni kāṅkṣhati
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भावार्थ:
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! जो पुरुष सत्त्वगुण के कार्यरूप प्रकाश (अन्तःकरण और इन्द्रियादि को आलस्य का अभाव होकर जो एक प्रकार की चेतनता होती है, उसका नाम ‘प्रकाश’ है) को और रजोगुण के कार्यरूप प्रवृत्ति को तथा तमोगुण के कार्यरूप मोह (निद्रा और आलस्य आदि की बहुलता से अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतन शक्ति के लय होने को यहाँ ‘मोह’ नाम से समझना चाहिए) को भी न तो प्रवृत्त होने पर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होने पर उनकी आकांक्षा करता है। (जो पुरुष एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही नित्य, एकीभाव से स्थित हुआ इस त्रिगुणमयी माया के प्रपंच रूप संसार से सर्वथा अतीत हो गया है, उस गुणातीत पुरुष के अभिमानरहित अन्तःकरण में तीनों गुणों के कार्यरूप प्रकाश, प्रवृत्ति और मोहादि वृत्तियों के प्रकट होने और न होने पर किसी काल में भी इच्छा-द्वेष आदि विकार नहीं होते हैं, यही उसके गुणों से अतीत होने के प्रधान लक्षण है)॥22॥
Translation
The Supreme Divine Personality said: O Arjun, The persons who are transcendental to the three guṇas neither hate illumination (which is born of sattva), nor activity (which is born of rajas), nor even delusion (which is born of tamas), when these are abundantly present, nor do they long for them when they are absent.
English Translation Of Sri Shankaracharya’s Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda