( मन के निग्रह का विषय ) अर्जुन उवाच-योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥
( मन के निग्रह का विषय ) अर्जुन उवाच-योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन |
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: || 32||

ātmaupamyena sarvatra samaṁ paśhyati yo ’rjuna
sukhaṁ vā yadi vā duḥkhaṁ sa yogī paramo mataḥ

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भावार्थ:

हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति (जैसे मनुष्य अपने मस्तक, हाथ, पैर और गुदादि के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और म्लेच्छादिकों का-सा बर्ताव करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्थात अपनापन समान होने से सुख और दुःख को समान ही देखता है, वैसे ही सब भूतों में देखना ‘अपनी भाँति’ सम देखना है।) सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है॥32॥

Translation

I regard them to be perfect yogis who see the true equality of all living beings and respond to the joys and sorrows of others as if they were their own.

English Translation Of Sri Shankaracharya’s Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

See also  Bhagavad Gita: Chapter 4, Verse 4

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