मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः । राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः । राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस: |
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता: || 12||

moghāśhā mogha-karmāṇo mogha-jñānā vichetasaḥ
rākṣhasīm āsurīṁ chaiva prakṛitiṁ mohinīṁ śhritāḥ

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भावार्थ:

वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान वाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को (जिसको आसुरी संपदा के नाम से विस्तारपूर्वक भगवान ने गीता अध्याय 16 श्लोक 4 तथा श्लोक 7 से 21 तक में कहा है) ही धारण किए रहते हैं॥12॥

Translation

Bewildered by the material energy, such persons embrace demoniac and atheistic views. In that deluded state, their hopes for welfare are in vain, their fruitive actions are wasted, and their culture of knowledge is baffled.

English Translation Of Sri Shankaracharya’s Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

See also  Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 68

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